सपना
मैंने सपने देखे
सपनों मे अट्टालिकाएँ नहीं
झोपड़ी थी
पक्की सडक नहीं
कच्ची मिट्टी थी
नल नहीं नदी थी
चमकीले कपड़े नहीं थे
थी तो सूती धोती
कार नहीं साइकिल थी
गैस की जगह था
लकड़ी का चूल्हा
बिजली की जगह दीपक था
और था प्रकृति का उजाला /अंधेरा ,
सपना बड़ा छोटा नहीं
दुर्लभ होता है
सो
बंद कर दिया मैंने
सपने देखना
अब सपनों मे नहीं
पक्के मकान ,एसी की हवा
आर ओ के पानी के साथ
एल इ डी की रोशनी में
कार जहाज जैसे मशीनों के साथ
जिन्दा हूँ मैं
मशीन होकर ।
Thursday, December 10, 2015
सपना
Wednesday, October 28, 2015
रात्रि
रात्रि
मेरी रात्रि
शुभ
याद नहीं कब रही
शुभ में भी निश्चिंतता नहीं
इस जीवन की पारी तो
पूरी हुई
इंतजार करूगीं मैं
पूर्ण शुभरात्रि का
पुनः आगमन पर ।
रात्रि भयावह स्वप्न है
स्वप्न डराने वाले
स्वप्न व्यग्र करने वाले
स्वप्न नींद उड़ाने वाले
क्यों आती है ये रात्रि
जब देंह आत्मा किसी को भी
आराम नहीं ।
नश्तर चुभ गया हृदय में
याद आ गया अंगुलिमाल
पाप और पुण्य
करने वाले का होता है
वैसे ही जैसे
मान -सम्मान
जो पाता है उसका
प्रारब्ध होता है
न की उनका
जिनके लिए पाता है ।
दुःख
दुःख
किसकी खातिर
जो अपना नही था
या
उसकी खातिर
जो अपना होकर भी
अपना नही था
पर नहीं
जो अपना था
धमनियों में एक ही
लहू के
पानी होने का दुख ।
खून को
बनते देखा है पानी
अपने ही जीवन में
मैंने
इसके लिए
शारीरिक बिमारी की नहीं
बल्कि
जरूरत होती है
उस मानसिक अवस्था की
जब इंसान
लालच में अंधा हो जाए
तैयार हो जाए
अपने स्वार्थ के लिए
अपने ही खून की
सौदेबाजी के लिए ।
Saturday, May 23, 2015
प्यारी ईवा .....मेरी सोन परी
अब नहीं सुनाई देंगे कभी
ईवा के खर्राटे
हमारी शांति चली गयी
उसके खर्राटों के साथ
अब जब घर में बच्चे न होंगे
तो होगा बस सन्नाटा /गहरा अकेलापन
समय के साथ साथ जरुरत थी
और भी ज्यादा जिसके साथ की
जिसका होना हमारे दुःख में भी सुख था
जिसके होने से बंधे थे एक ही डोर से
वो धागा टूट सा गया
जिसने बहुतों को सिखाया
बिना प्रतिकार के सिर्फ देना
बिना कुछ पाये सिर्फ देना
प्यार की परिभाषा थी जो
जानती थी सिर्फ देना
अपने स्वार्थ से किया
उसको प्यार हमने
उसके प्यारेपन के कारण
पर उसने हर किसी को
दिया प्यार कोई कैसा भी था
हम इनसान जो नहो सीखा सकते
वो पाठ पढ़ा कर गई हमारी ईवा
घर में हर घडी उसकी
छवि महसूस होती है
उसकी बड़ी बड़ी मासूम
प्यार भरी उत्सुक आँखे
हर घड़ी पीछा करती हैं
घर पर आने पर उसके
भाग के न आने पर
उसके न दिखने पर
दिल बैठ जाता है
आँखों के आंसू थमते नहीं
बेटी की आँखे सूजी रहती हैं
रो रो कर ,
बेटा पत्थर हो गया है
सदमे से ,
चार साल की नन्ही ईवा ने
मौका तक नहीं दिया
अपने लिए कुछ करने का
वो तो बीमार भी न थी
बस एक उलटी ......
डाक्टर के नाम पर
दुकान खोल कर बैठ जाना
डिग्री कौन जाँचे
कौन जाँचे उनकी योग्यता
जब तुरंत इलाज की जरुरत हो
इतना इन बेरहमों के लिए काफी है
किसी की जान लेने के लिए
क्रोध और विषाद दिन
रात का चैन ले जा चुका है
ईवा बस गयी है हमारे अंदर
लहू में आक्सीजन की तरह
व्यव्हार में संस्कारों की तरह ।
वर्तमान
बेटी ने कहा
माँ ! भूकंप ने नेपाल को
तहस नहस कर दिया
इमारतें ढह गईं
धरोहर नष्ट हो गए
इनमें दब गईं हजारों जिन्दगी
घर उजड़ गए
परिवार के परिवार नहीं रहे
कितने अनाथ हुए
कितनों ने अपने खोये
कोई अपंग हुआ
तो कोई बर्बाद
धरती हमारे यहाँ भी हिली
क्या है ये ?
हम इंसानो का बिगाड़ा हुआ या
प्रकृति का कोप ?
क्यों हम पागल होते जा रहे हैं.
वनो को क्यों काट रहे हैं?
क्यों अविचल बहती धारा को
रोक देते हैं बांध बना कर
शिक्षा आँखें खोलती है
पर हम
आँखे मुन्दते जाते हैं
हम चढते हैं पहाड़ों पर
रौदते हैं और छोड कर आते है
अपनी फितरत के निशान
प्रकृति पुराने जमाने की बहू तो नही
जो सहेगी और कुछ न कहेगी
Tuesday, April 14, 2015
बेपरवाहियाँ
बहुत याद आते हैं आज कल
गुदगुदाते हैं तुम्हारे साथ बिताये
दुस्साहसी ,आसान और पागलपन भरे
कमसीन उमर में किये गए
भोलेपन की उम्मीदों
शैतानियों से भरे
बेपरवाही और खुशियों से भरे
दिन छोटा पड़ जाने वाले दिन
और याद आती हैं
तुम्हारी सच्चाई ,पवित्रता
भोलापन और मासूमियत
और वो मुसकुराना शर्माना जिसके
दीवाने थे सारे
बूढ़े और जवान
और बच्चे भी
अभी भी वो समय
ठहरा हुआ है
उतना ही ताज़ा
जितना जीते हुए
रहा था वो
Saturday, April 11, 2015
ईवा
मुझे तो ईवा के खर्राटे भी बहुत सुरीले
बहुत अपने से हैं लगते
जिसको कुछ दे नहीं सकती
जिसके लिए कुछ भी
कुर्बान नहीं कर सकती
नहीं है कुछ भी उसकी कुछ भी
मांग मुझसे
नही दे पाती हूँ कुछ भी ऐसा
जो दे संतोष मुझको
पर फिर भी वही है जो कराती है
अहसास होने का अपने हर घडी
जब होती हूँ मैं
बीमार और अकेली.
Friday, April 10, 2015
जीवन यात्रा
जीवन के संध्या काल में
चलते चलते
दूर बहुत दूर
आ गई हूँ
इस यात्रा में
रास्ते का होश नहीं रहा
कब कांटे चुभे
कब पैर जले
और छिले
अब जब होश सा आने लगा है
और अब जब दिखने लगे हैं
जख्मों के निशान
साथ ही टीसने लगे हैं
घाव पुराने
जख्म पैरों पर ,दर्द क्यों
होता है कलेजे में .
ये दर्द तब क्यों न चला पता
जब ये ताज़ा था
हर दिन लगती थी ठोकर और जब
जलते थे पैर हर दिन.
दूसरी पारी .........
सबसे पहले क्षमा प्रार्थी हूँ उन सब से, जिन्होंने पढ़ा और मेरा हौसला बढ़ाया ।मैंने एक नए संवत्सर पर अपना ब्लॉग शुरू किया था ये सोच कर कि बहुत कुछ आप सब से, कह सुन सकूंगी ,पर .....मैं हारना ,भागना नहीं जानती ,और नहीं जानती हूँ मजबूरी जैसा कोई शब्द। पर हाँ ,हालत क्या कुछ नहीं कर देता और हम इस दुनिया के रंगमंच पर अदृश्य की डोर से बंधी हम कठपुतलियां वही करते हैं जैसा वो चाह लेता है.तो बंधुओं बिना ऊपर अपनी कही तमाम बड़ाइयों के, मैं भी अनचाहे वैसे ही वही करती रही जो वो चाहता था ।
ठीक चलती गाड़ी में हड्डियों की असहनीय और ठीक न होने वाली पीड़ा दायक बीमारी ने मुझे भौचक कर दिया.ऊर्जा से भरे मन मिजाज़ को अचानक मरती हुई देंह का सच स्वीकार करना कठिन था.पर मैं तो अपनी कोई बात कह न सकी थी तो मेरे जीवन का पटाक्षेप कैसे हो सकता था?कोई चिकित्सा असर नहीं कर रही थी क्यूंकि इस शानदार बीमारी का कोई इलाज नहीं है ऐसा डाक्टरों ने बताया.ऐसे में एक अपरिचित चिकित्सा पद्धति ने जीवन दान दिया.अब आपके बीच में तब तक तो हूँ ही जब तक मेरे शरीर और मन की ऊर्जा साथ देगी.... .. .